बारीश और तुम #२

कल रातकी बारिश कुछ बूंदे छोड गयी है, वहा खिडकीकी चौखटपर ,
मेरी कलाई की घडी मे फसी तुम्हारे कुर्तेके कुछ रेशमी धागों जैसी।

मेरे कंधेपे सर रखकर अपनी उँगलिसे मेरे सिनेपे तुमने जो लिखे थे,
वो अल्फाज अपने नाजुक हाथोंमें समेटे, देखो वो पल घूम रहे है मेरे इर्दगिर्द।

जालीम हवा झोका कुछ बुंदोंको चौखटसे गिराकर गया है अभी अभी,
जैसे वक़्तकी टिकटीकाती सुइयोंने बडी बेरेहेमीसे तुम्हे मेरे बाहोंसे छीना था।

कुछ और भी बूंदे शायद शहिद हो जाती उस बेरहम हवा के झोंकेसे,
पर तुम्हारी यादोंकी तरह उन्हें भी बचा लिया है मैंने।
खिड़किया जो बंद करली है मैंने कमरेकी, और दिल की भी।


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Comments

2 responses to “बारीश और तुम #२”

  1. saumynagayach Avatar

    Beautiful poem, Aditya! I really like the way you’ve used urdu words in the verse. It always adds an essence to any form of poetry.

    1. Adi Sathe Avatar

      Thank a lot fellow…. I am very happy that you liked it…

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