हर रोज़ सुबह जब मैं मेरे कमरेकी खिड़की खोलता हूँ,
तो यही एक सवाल हमेशा होता है।
के ये कौन है जो एक आंखसे हमेशा मुझको तांकते है।
जिनका कश्मीरी गोरा रंग अब इन झुरनियोसे सजा हुआ है,
एक अजिबसा wisdom झलकता है उस चेहरेपे।
ये एक आँख बंद क्यों है और…
और दूसरी उनींदी, मानो कबसे सोयेही न हो।
शायद बुढ़ापा अब सोनेभी नही देता होगा।
एक अरसा वो भी हुआ होगा,
जब इन्ही दो आँखोने न जाने क्या क्या दुनिया देखी होगी।
भरापूरा परिवार देखा होगा, खिला हुवा घर देखा होगा।
वो चूल्हा देखा होगा, जहा मेहनतसे कमाई हुई रोटी पकती होगी।
आँखोंमें ढेर सारा प्यार लेके उस चौखटपर खड़ी नवेली दुल्हन को देख होगा।
उनके गृहस्थीके वसन्त, वर्ष और कभी कभी झुलसाते ग्रीष्म भी देखे होंगे।
अपनी जगह से बड़ी संतुष्टिसे देखा होगा, जब नन्हे कदमोंसे खुशियाँ आयी थी।
उन नन्हे कदमोंको अपने आंखोंके सामने बड़ा होतेभी देखा होंगा।
पर तब ये आंखे कहा जानती थी के जो कदम बड़े हो रहे है,
वो एक दिन बाहरकी और दौड़ेंगे, वापस न लौटनेके लिए।
शायद, हा शायद तबसेही, ये एक आंख बंद है, और एक उनींदी….
I had written this poem for a prompt of the week of Baithak and beyond. But uncertain weather got better of us and the session got postponed. So here’s the poem for you guys…
बांधू कंकण मोतीये,
मन खुलेलं क्षणात.
वाटे आकाश चांदणे,
मी बांधले हातात.
या बांगड्या लाखेच्या,
मज घेऊ वाटतात,
फुलतील इंद्रज्योती,
तिच्या साऱ्या आरश्यांत.
काय काय भरू हाती
नाही ठरत मनात,
का होते माझे ऐसे,
दरवेळी श्रावणात?
Thank you Anupriya for such a wonderful suggestion of posting audio of my recitation, and see fortunately Saad Ahmed from “बैठक and beyond” has captured this recitation from our yesterday’s session at “Matoshree Ramabai Ambedkar Udyan, Pune” where I have explained a bit about the poem in Hindi too. Thank you, Saad.
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